Sunday, August 22, 2010
सामाजिक संदर्भों को उकेरते दो नाटक
सामाजिक संदर्भों को उकेरते दो नाटक
शमशेर अहमद खान
शिल्पायन प्रकाशन द्वारा हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार परवेज़ अहमद के दो नाटकों का संग्रह ये धुआं कहां से उठता है और छोटी ड्योढ़ीवालियां वर्तमान सामाजिक संदर्भों को इस प्रकार रेखांकित करते हैं कि पाठक इन नाटकों के सारे घटनाक्रम अपने आस-पास घूमता महसूस करता है .भाई परवेज़ वर्षों तक नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग से जुड़े रहे इसलिए उनके इन नाटकों में भाषा में कहीं शिथिलता या लिजलिजापन नहीं बल्कि भाषा ठोस और सटीक पात्रों के माध्यम से व्यक्त की गई है,यह उनका संपादकीय कौशल है जो नाटक के कथ्य को तार्किक और भाषा की दृष्टि से सटीक बना देता है जिसे केवल साहित्यिक रचनाकार द्वारा कर संभव नहीं हो पाता क्योंकि साहित्यिक रचनाकार मात्र भावनाओं के साथ ऐसा तादात्म्य स्थापित करता है जिसके दायरे से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं हो पाता.
दोनों नाटकों के कथ्य का सार पुस्तक के रैपर पर दिया हुआ है.ये धुआं कहां से उठता है,इस संबंध में लेखक कहता है….ऐसे इंसान के दर्द की दास्तान है जो आज भी मुल्क के बंटवारे के थपेड़ों में झूल रहे हैं……अपने बुजुर्गों की रूहों के दरम्यानवो आज भी अपनी मिट्टी से चिपके हुए हैं और उसके सौंधेपन में डूबे हुए हैं….जब जज्बात पुकारते हैं तो उनके कदम सरहद पार रह रहे अपने रिश्तेदारों की तरफ खिंचने लगते हैं लेकिने दिल में ख्वाहिश यही होती है,वहां मौत होने पर भी दफनाया अपने मुल्क में ही जाए और यही पेचीदा हालात उनके दिमाग में सवाल पैदा करते हैं- बंटवारा हुआ तो बंटा कौन?...ख्वाब बंटे, ज़िंदगियां बंटी, जज्बात बंटे. इन्हीं मुद्दों को आधार बनाकर यह नाटक बुना गया है जो आज भी कहीं न कहीं इस प्रायद्वीप के कुछ लोगों के लिए टीस बना हुआ है जोइस विभाजन के शिकार हुए हैं.
छोटी ड्योढ़ीवालियां इस पुस्तक का दूसरा नाटक है जिसमें पेचीदा इंसानी संबंधों और उनके पारस्परिक जज्बातों को इसके माध्यम से व्यक्त किया गया है. नाटक की भाषा और कथ्य दोनों में इस प्रकार संतुलन बना हुआ है कि इनके किरदार बिना संवाद के ही बोलने से लगते हैं. मुस्लिम समाज के पात्रों का चयन नाटककार ने किया है, वे अपने सामाजिक सरोकारों से इतने जुड़े हुए हैं कि रिश्तों को निभाने के लिए वे उदात्ता के चरम तक पहुंच जाते हैं.बड़ी नानी नाम की पात्र इसकी जीती-जागती मिसाल हैं और वे सभी पात्र भी जो इस खानदान से ताल्लुक रखते हैं अपने-अपने चरित्रों को बखूबी अंजाम देते हुए समाज के आदर्श स्थिति को रूपायित करते हैं. भाषा शुद्ध सोने जैसी खरी है जो मुस्लिम परिवेश को स्वतः परिलक्षित कर देती है.
लेखक ने इसकी कथावस्तु का चयन मध्य प्रदेश की मालवा भूमि के मुस्लिम तबके का किया है जो कभी अपने सांस्कृतिक उरूज पर हुआ करता था किंतु राजनीतिक दृष्टि से जैसे-जैसे यह क्षेत्र छोटा होता गया वैसे- वैसे यहां सामाजिक बदलाव भी होते गए, और इन्हीं बदलाओं के दौरान समाजिक टूतन का निरूपण नाटक में किया गया है किंतु कर्तव्य और नैतिकता मानवीयता के चरम बिंदुओं का संस्पर्श कराती है.यही इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता है.
शमशेर अहमद खान,
2-सी,प्रैस ब्लॉक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054.
Email: ahmedkhan.shamsher@gmail.com/09818112411
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भाई परवेज़ अहमद को पुस्तक प्रकाशन पर बधाई। हिन्दी की रचनाओं में मुस्लिम किरदारों को अक्सर 'सिम्पेथेटिक वे' में रखने का चलन काफी समय से देखा जा रहा है। उस पूरे माहौल को कथा का केन्द्र बनाना कोई जैसे जानता ही न हो। खुद मुस्लिम कथाकार भी पता नहीं क्यों ऐसा बहुतायत में नहीं कर पा रहे हैं। यह पढ़कर अच्छा लगा कि परवेज़ भाई ने मुस्लिम किरदारों को उठाकर उनकी भावनाओं को सामने रखा है। मेरी ओर से बधाई।
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