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Friday, September 17, 2010

आया मौसम झूम के


फिक्र व तंज

आया मौसम झूम के
शमशेर अहमद खान

भारतीय परंपरा में वैसे तो गर्मी,बरसात और शीत तीन ऋतुएं ही मानी गई हैं.यह मानने की परंपराएं भी बड़ी विचित्र और परावलंबी होती हैं आदमजात स्वतः कोई चीज नहीं मानता जबतक उसे कोई विवश न करे.आदमी की क्या औकात जो आदमी को आदमी की औकात बताए. यह काम तो बस प्रकृति का ही है जो आदमी को उसकी हैसियत का बोध करा देती है.आदमी है जो फिर भी अपनी आदत से बाज नहीं आता.आदमी कितना भी शोध, अनुसंधान करके आकाश- गंगा तक की यात्राएं कुछ पलों में कर ले और भविष्य को अपनी मुट्ठी में कैद करने का दावा करे,प्रकृति के समक्ष यह महज एक बच्चे के दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं होता.
इस वर्ष विश्व पटल पर ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा इस ग्लोबलाइजेशन के युग में विश्व के कोने-कोने में गूंजता रहा.ग्लेशियरों से पिघलती बरफ की चिंता इस ग्लोबलाइजेशन के हर गांव के हर आदमजात के चेहरे पर झलक रही थी.साइंसदानों के इस शोध पर प्रकृति ने इस वर्ष इतनी ठंड और बर्फबारी की कि ग्लेशियर फिल्वक्त अपने मूल आकार को प्राप्त हो गए.प्रकृति के इस संकेत को अगर इंसान न समझे तो फिर इंसान किस बात का.
भारतीय संदर्भ में मौसम प्रकृति प्रदत्त है और उसी की अनुकंपा से ये परंपराएं हमने बनाई हैं. हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मानसून की भविष्यवाणी जोर-शोर से की जाती रही और मानसून था कि इंतजार पर इंतजार करवाते हुए साइंसदानों को उनकी लघुता का बोध कराते हुए ऐसा डेरा जमाया कि सालों-साल तक ऐसी अनुकंपा नहीं की थी.इसने एक-साथ दो निशाने साधे और सरकारी कारिंदों को कबीर की वाणी की ओर इशारा करते हुए एहसास दिला दिया कि काल करे सो आज कर ,और आज करे सो अब, पल में प्रलय होगी, बहुर करेगा कब. संकेत कामनवेल्थ खेलों की तरफ है.
इधर पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली की फिजा में सरकारी तौर पर दो ही मौसम गूंजते रहे हैं.पहला मौसम, जमुना की सफाई अभियान को लेकर था. इस अभियान में हर कोई बहती गंगा में हाथ धोकर पुण्य कमाना चाहता था. आले से आला अधिकारी तो क्या मोहल्ले का घीसू लफंगा भी अपने कुछ शागिर्दों के साथ इसमें भाग लेकर यश ही यश ले रहा था. अखबार क्या न्यूज चैनल तक लगातार इस समाचार को लंबा खींच-खींच कर उसे लंबे से और लंबा करते जा रहे थे.इन माध्यमों का इससे अधिक सदुपयोग भला और क्या हो सकता था?
प्रकृति का दूसरा संकेत था,यमुना के सफाई अभियान प्रोजेक्ट पर आदमजात द्वारा रखे गए सारी कार्ययोजनाओं को एक हल्के झटके से पूरा करना. जिन अखबारों और न्यूज चैनलों ने इसे लीड खबर बनाई थी,वही अब बाढ़ की बाइट दिखाकर-दिखाकर बाढ़ का भय दिखा रहे थे लेकिन किसी भी अखबार या न्यूज चैनल ने प्रकृति के इस सकारात्मक कार्य की ओर संकेत तक करने की जहमत तक नहीं उठाई कि जिस बहती गंगा में लोग हाथ धो रहे थे उसे प्रकृति ने चुट्कियों मे पूरा कर दिया अब तो चिंता यह होनी चाहिए कि इसे अब साफ कैसे रखा जाए.जनता की गाढी कमाई का पैसा कोई लुटेरा लूट ने ले जाए..लोक्तंत्र के रक्षक चौथा स्तंभ चौथे स्तंभ को ……?
दिल्ली का दूसरा मौसम हिंदी पखवाड़े का है. पूरा सितंबर माह चारों तरफ हिंदी के बैनरों से अटा पडा है.कोई ऐसा कार्यालय न होगा जहां लोग प्रोत्साहित न हों. कहते हैं हमारी एक परंपरा में यह श्राद्ध का माह होता है, जिसमें अपने पूर्वजों कों पिंडदान देने की परंपरा है.दोनों का संयोग क्या खूब बन पडा है.
वर्तमान शासन प्रणाली में सर्वाधिक उत्तम शासन प्रणाली लोकतंत्र ही मानी गई है,जिसपर हमें गर्व है. गर्व इस बात का भी है कि हमारा शासन हमारी भौगोलिक सीमाओं में नागरिकों द्वारा बोली जाने वाली भाषा या भाषाओं मे भी किया जाता है. दिल्ली सरकार के राज्य शासन में ही चार भाषाएं हैं.सीमांत प्रांतों को छोड़कर देश का कोई भी नागरिक या समूह देश के अन्यत्र भागों में रहने/बसने की न केवल छूट है बल्कि अपनी भाषा को भी बोलने, यदि अगर राज्य की जनसंख्या के अनुपात में नवांगातुक नागरिकों की संख्या अधिक हो तो वहां के शासन में लाने का संवैधानिक अधिकार भी है. यह दूसरी बात है कि इस मुद्दे पर कोई हल्ला करे तो चुप रहना भी हमारा मजबूत लोकतंत्र है. है न हमारा यह अदभुत लोकतंत्र.
इधर बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने की होड़ सी मची हुई है.किसी ने कहा है सरिता निर्झरों से मिलकर अपना रूप निखारते हुए सागर में मिलती है.यही सरिता की सुंदरता भी है.झरनों को निर्बाध बहने का पूरा हक है और उसके पूरे विकसित होने का भी.इसी तरह बोलियों के भी विकसित होने का भी पूरा अधिकार है.विश्व के श्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक देशों में भारत इसलिए भी अद्भुत और श्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक देश है कि यहां के संविधान में(वर्तमान)बाईस भाषाओं को भारतीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त है. ये भाषाएं भारतीयों द्वारा बोली जाती हैं इसलिए कोई माने या न माने मेरी निजी अवधारणा इसे भारतीय भाषाएं मानने की हैं.
वर्तमान संघ की सरकारी कामकाज की भाषा हिंदी और अंग्रेजी है.अंग्रेजी इसलिए कि वह विरासत में मिली जिसका उन्मूलन संघ के सरकारी कामकाज से तभी हो सकेगा जब सभी संघीय सरकार के अमलों को हिंदी में दक्ष कर दिया जाएगा जिसकी प्रक्रिया जारी है.
चूंकि वर्तमान में बाईस भाषाओं वाले इस लोकतंत्रात्मक देश में सभी भाषाएं समान हैं इस जिस बुनियाद पर इसे संघ के सरकारी काम-काज की भाषा हमारे सम्मानीय पूर्वजों ने निर्धारित किया था वह इसकी बोलने वालों की जनसंख्या- वृहत भौगोलिक क्षेत्र और आजादी के आंदोलन में भावनात्मक और राष्ट्रीय एकजुटता का जुडाव. अब अगर बोलियों को हिंदी से निकाल दें तो जनसंख्या का आधार कम हो जाने से संघ की राजभाषा हिंदी का लोकतंत्रात्मक आधार खिसक जाएगा और फिर आप किसी और भाषा का मुद्दा बनाएंगे और इस बहुभाषाविद लोकतंत्रात्मक देश में संघ के सरकारी काम-काज की सुई अपने मूल समय से पीछे बहुत पीछे खिसक जाएगी.

4 comments:

  1. is prathivi par prakrati se badkar kuchh nahin hai,

    sundar prastuti


    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  2. 'आया मौसम झूम के' शीर्षक बहुआयामी बन गया है। बोलियों से रहित हिन्दी की कल्पना कोई धूर्त ही कर सकता है। हिन्दी सिर्फ शरीर है, बोलियाँ उसकी आत्मा। हिन्दी के सभी विद्वान इसके इस संस्कार से परिचित हैं। यही नहीं, जितनी भी भारतीय भाषाएँ हैं उनको सम्मान दिए बिना भी सम्मानित हिन्दी की कल्पना दिवा-स्वप्न ही मानी चाहिए।

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  3. aapney bahut sundar tarikey se vishay ko uthaya hai.

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  4. Sir, superb, ur comment was up to the mark, keep posting more and more your thoughts and views. my regards and well wishes are always with u.
    God Bless you and ur family. Jai Hind.

    Neeloy sarkar

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