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Thursday, July 8, 2010

पेट्रोल,महंगाई और आम आदमी

पेट्रोल,महंगाई और आम आदमी
शमशेर अहमद खान
महंगाई के विरोध में भारत बंद का आह्वान राजनीतिक पार्टियों द्वारा करके सरकार या जनता के कामों में बाधा डालकर उनको क्षति पहुंचाना लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में भले ही उनका संवैधानिक अधिकार हो,किंतु महंगाई झेल रही जनता से सहानुभूति लेकर अपनी राजनीति चमकाने की निहित स्वार्थ भावना आम जनता के मनःस्थल में यह सवाल जरूर खडा करती है कि महंगाई से आम जनता को निजात दिलाने के लिए इसके अलावा भी क्या कुछ रास्ते नहीं थे?
सदियों से हमारी यह परंपरा रही है कि निःस्वार्थ होकर हम सहयोगात्मक वृति से सामाजिक कल्याणकारी कार्य करते रहे हैं.जिसे हमारे पूर्वजों ने इसे अपनी दिनचर्या में इस तरह आत्मसात कर लिया जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति का एक उपांग ही बन गया. उस सामाजिक कल्याण की भावना से सिद्ध काम में ऐसा कोई निहित स्वार्थ उनका नहीं होता था जैसाकि आजकल है? कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं जिनसे अपने पूर्वजों के रास्ते से भटकते हुए हम स्वंय में पर निगाह दौडाने से जवाब मिलता दिखाई देगा.
बात पिछले दिनों की है.बजट सत्र के दौरान एक चैनल ने महंगाई के मुद्दे पर एक कार्यक्रम में मुझे भी दर्शक दीर्घा में आम दर्शक बनकर बहस को सुनने और अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया था.इस चर्चा में सत्ता पक्ष के अलावा तीन अन्य राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के कद्दावर नेता भी बुलाए गए थे ताकि बहस को पक्ष और विपक्ष दोनों की दृष्टियों से कसा जा सके. आरोप-प्रत्यारोप के बीच गरम-गरमा बहस में जहां खाद्य पदार्थों की जिंसों में चीनी-दाल और सब्जी मुख्य रहीं,वहीं मुझे लगा कि मांसहार के आइटमों को जानबूझकर या सहज रूप में छोडा जा रहा है. संयोग कहें या कुछ और विगत दिनों मैंने अपने आबाई वतन में भारत से नेपाल की दिशा में बड़े-बड़े ट्रकों में जीवित पशुओं को जाते हुए देखा था. सहजता से पता करने पर मालूम हुआ कि ये जीवित पशु पड़ोसी देशों को भेजे जा रहे हैं. दिल्ली लौटने पर जब संबंधित विभाग से पता किया तब मालूम हुआ कि अभी तक देश में जीवित पशुओं के निर्यात के लिए न कोई नीति है और न ही नियम.चूंकि देश की आबादी का एक बडा भाग इसे कंज्यूम करता है, लिहाजा इनकी तस्करी भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से महंगाई का एक घटक है. कार्यक्रम में सम्मिलित उन सम्मानित नेताओं से इस संबंध में जब सवाल किया तब जवाब तो मिला नहीं.हां,चैनल ने भी वर्तमान पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए उस अंश को इडिट जरूर कर दिया. बात आई-गई हो गई.बजट के दौरान उठी महंगाई विस्मृत हो गई.
इधर पेट्रोल के दामों में की गई वृद्धि और इससे होने वाली महंगाई को लेकर उठा विवाद और जन शुभचिंतकों द्वारा किया गया भारत बंद,यह उनका अहम मुद्दा था. शासक और शासित के अपने-अपने तर्क और गणित होते हैं. हमारा मुद्दा यह नहीं है कि दाम बढ़े तो क्यों बढ़े? और न बढ़े तो क्यों न बढ़े? यह विशुद्ध रूप से तकनीकि मामला है. यहां बात मांग और आपूर्ति के परस्पर सिद्धांत की है.कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर केंद्र और राज्य दोनों मिलकर इसके कुछ कर हटा लें तो निश्चित रूप से पेट्रोल के दाम कम हो जाएंगे और बढ़्ती हुई महंगाई पर अंकुश लग सकता है. गौर करने की बात यह हैकि कुछ राज्यों में उन राजनीतिक पार्टियों की सरकारें भी हैं,जो परस्पर बात कर महंगाई को रोकने की दिशा में सकारात्मक पहल भी कर सकती थीं. खैर,
एक दूसरा पहलू,पिछले दिनों एक दैनिक ने आंकड़ों से यह प्रमाणित कर दिया था कि आगामी कुछ वर्षों में दिल्ली में चार पहिया वाहनों की रफ्तार मात्र दस से बीस किलोमीटर तक सीमित हो जाएगी. यह देखा भी गया है कि दिल्ली में नब्बे प्रतिशत प्राइवेट कारों में एकल सवारियां होती हैं और आज सरकार ने भी सरकारी कर्मचारी की हैसियत इतनी कर दी है कि वह किसी भी रूप में कार ले सकता है.कार लेना हर व्यक्ति का यह न केवल संवैधानिक बल्कि प्राकृतिक अधिकार है भी कि वह कार या कारें रखे.लेकिन ज्वलंत सवाल यह है कि क्या ईंधन के बेजा इस्तेमाल या क्षतिपूर्ति रहित धरती के खनिजों के दोहन का हमारा अधिकार है? कुछ वर्ष पहले टाफलर के इस सिद्धांत पर आधारित उनकी पुस्तक फ्यूचर शाक को अपने शासन काल में इंदिरा जी ने उपसचिव स्तर तक के अधिकारियों को पढ़ने के लिए अनिवार्य कर दिया था. यहां उनकी राजनीति की सच्ची सुगंध और नेकनीयती दिखाई देती है.दर असल हम अपनी वैशिष्टता को त्याज्य कर उपभोगतोन्मुख संस्कृति की ओर ऐसे लालायित हो गए हैं कि लोकोन्मुख संस्कृति की तरफ जाना सरल नहीं रह गया है.फैक्टर जो भी हों.रास्ता हमें ही तलाशना है.अगर मैं स्वंय से शुरु करूं तो मैं अपने आवास से केवल 1.70 रुपए में ही कार्यालय पहुंच सकता हूं,वर्तमान में सार्वजनिक वाहन से कम से कम पंद्रह रुपए लगते हैं.एक रुपए सत्तर पैसे में मैं न केवल अपनी कुछ मुद्राएं बचाकर अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर लगा सकता हूं बल्कि इस कार्य से प्रदूषण रहित वातावरण की दिशा में कदम भी रख रहा हूंगा. ऐसी नेकनीयती अगर कार्यालयों के निकट कालोनियों के कर्मचारी कुछ दिन/दिनों/महीने/महीनों के लिए करें तो संभवतः राष्ट्र हित में क्या से क्या न कर चुके होंगे.बात हमेशा ऊपर से नीचे जाती है,इसकी मिसाल लोगों के दिल की धड़कन दिल्ली से क्यों नहीं?राजनीति केवल क्या विरोध से ही होती है या क्या नई संकल्पनाएं नहीं हो सकतीं? यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक घटक का हर दल भी सत्तासीन होता है.
---शमशेर अहमद खान
2-सी,प्रैस ब्लॉक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054