Pages

Saturday, October 2, 2010

केंद्रीय हिंदी निदेशालय का स्वर्ण जयंती समारोह














केंद्रीय हिंदी निदेशालय का स्वर्ण जयंती समारोह
शमशेर अहमद खान
विगत दिनों भारत सरकार,मानव संसाधन विकास मंत्रालय के केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने अपनी स्थापना(1960) से पचास वर्ष के पूरे होने पर स्वर्ण जयंती समारोह,इंडिया हैबिटेट सेंटर में बड़ी भव्यता किंतु सादगी के साथ मनाया.इस अवसर पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल,मंत्रालय की संयुक्त सचिव श्रीमती अनिता भटनागर जैन,निदेशक भाषाएं श्री आर.पी. सिसौदिया,निदेशक प्रो.के.विजय कुमार और उपनिदेशक श्रीमती शशि भारद्वाजआदि मंचासीन थे. केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने मंत्री महोदय के कर कमलों द्वारा हिंदी साहित्य और व्याकरणिक बिंदुओं की बारह सी.डी. तथा विभिन्न भाषाएं और हिंदी की ग्यारह आडिओ सी.डी.के अतिरिक्त देवनागरी का मानकीकरण,स्पेनी हिंदी शब्दावली,भारतीय भाषा परिचय-सभी भाषाओं का संक्षिप्त इतिहास,हिंदी लेखक संदर्भिका,केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पचास वर्ष-एक सिंहावलोकन,स्मारिका एवं कार्यक्रम और दिशा-निर्देश आदि पुस्तकों का लोकार्पंण सुनियोजित ढंग से निष्पादित करवाया. इस अवसर पर मंत्री जी ने निदेशलय की द्विवभाषी साइट का भी लोकार्पण किया.
मंत्री महोदय ने अपने उद्बोधन भाषण में निदेशालय के कार्यों की सराहना करते हुए न केवल हिंदी बल्कि संविधान सम्मत सभी भारतीय भाषाओं के सम्यक विकास, प्रचार और प्रसार हेतु सरकार के दृढ़ संकल्प को कार्यान्वित करने और इसे गतिशील करने के लिए सकारात्मक कदम उठाने हेतु प्रेणात्मक बिंदु भी बताए.
निदेशालय का यह समारोह एक यादगार समारोह इसलिए भी माना जाएगा क्योंकि मंत्रालय हो या निदेशालय,छोटा हो या बडा, हर कोई एक तालमेल के साथ इसे सुसंपन्न कराने में अधिकतम निष्ठा के साथ जी-जान से जुटा हुआ था. समारोह में सैंकड़ों की तादाद में न केवल हिंदी बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार व संवर्धन में जुड़े लेखकों,

-2-
भाषाविदों,शिक्षकों, अनुवादकों और वहां से सेवानिवृत्त हुए कार्मिकों को ससम्मान आमंत्रित किया गया था.
इसमें एक सत्र संगोष्ठी का भी रखा गया जिसमें न केवल उनके विचारों से श्रोतागण लाभान्वित हुए बल्कि उन्हें इस मंच से सम्मानित भी किया गया. इन विशिष्ठ जनों में डॉ. महीप सिंह,डॉ.वी.रा.जगन्नाथन,डॉ.नरेंद्र व्यास,डॉ. पुष्प लता तनेजा, डॉ. अशोक चक्रधर आदि थे.
मंत्रालय की संयुक्त सचिव श्रीमती अनिता भटनागर जैन का कुशल प्रशासन, डॉ. प्रो.के.विजय कुमार का कुशल निर्देशन तथा श्रीमती शशि भारद्वाज का कुशल संचालन एक बेमिसाल कड़ी थी जिससे समारोह एक यादगार समारोह बन गया.यह समारोह लघु विश्व हिंदी सम्मेलन का सा आभास दे रहा था और अनेक परिचित-अपरिचित आपस में घुल-मिल रहे थे और कई बिछड़ों का यह मिलन स्थल भी हो गया था.इस समारोह की याद जेहन में हमेशा ताजा रहेगी.
शमशेर अहमद खान
2-सी, प्रैस ब्लॉक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054

Friday, September 17, 2010

आया मौसम झूम के


फिक्र व तंज

आया मौसम झूम के
शमशेर अहमद खान

भारतीय परंपरा में वैसे तो गर्मी,बरसात और शीत तीन ऋतुएं ही मानी गई हैं.यह मानने की परंपराएं भी बड़ी विचित्र और परावलंबी होती हैं आदमजात स्वतः कोई चीज नहीं मानता जबतक उसे कोई विवश न करे.आदमी की क्या औकात जो आदमी को आदमी की औकात बताए. यह काम तो बस प्रकृति का ही है जो आदमी को उसकी हैसियत का बोध करा देती है.आदमी है जो फिर भी अपनी आदत से बाज नहीं आता.आदमी कितना भी शोध, अनुसंधान करके आकाश- गंगा तक की यात्राएं कुछ पलों में कर ले और भविष्य को अपनी मुट्ठी में कैद करने का दावा करे,प्रकृति के समक्ष यह महज एक बच्चे के दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नहीं होता.
इस वर्ष विश्व पटल पर ग्लोबल वार्मिंग का मुद्दा इस ग्लोबलाइजेशन के युग में विश्व के कोने-कोने में गूंजता रहा.ग्लेशियरों से पिघलती बरफ की चिंता इस ग्लोबलाइजेशन के हर गांव के हर आदमजात के चेहरे पर झलक रही थी.साइंसदानों के इस शोध पर प्रकृति ने इस वर्ष इतनी ठंड और बर्फबारी की कि ग्लेशियर फिल्वक्त अपने मूल आकार को प्राप्त हो गए.प्रकृति के इस संकेत को अगर इंसान न समझे तो फिर इंसान किस बात का.
भारतीय संदर्भ में मौसम प्रकृति प्रदत्त है और उसी की अनुकंपा से ये परंपराएं हमने बनाई हैं. हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मानसून की भविष्यवाणी जोर-शोर से की जाती रही और मानसून था कि इंतजार पर इंतजार करवाते हुए साइंसदानों को उनकी लघुता का बोध कराते हुए ऐसा डेरा जमाया कि सालों-साल तक ऐसी अनुकंपा नहीं की थी.इसने एक-साथ दो निशाने साधे और सरकारी कारिंदों को कबीर की वाणी की ओर इशारा करते हुए एहसास दिला दिया कि काल करे सो आज कर ,और आज करे सो अब, पल में प्रलय होगी, बहुर करेगा कब. संकेत कामनवेल्थ खेलों की तरफ है.
इधर पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली की फिजा में सरकारी तौर पर दो ही मौसम गूंजते रहे हैं.पहला मौसम, जमुना की सफाई अभियान को लेकर था. इस अभियान में हर कोई बहती गंगा में हाथ धोकर पुण्य कमाना चाहता था. आले से आला अधिकारी तो क्या मोहल्ले का घीसू लफंगा भी अपने कुछ शागिर्दों के साथ इसमें भाग लेकर यश ही यश ले रहा था. अखबार क्या न्यूज चैनल तक लगातार इस समाचार को लंबा खींच-खींच कर उसे लंबे से और लंबा करते जा रहे थे.इन माध्यमों का इससे अधिक सदुपयोग भला और क्या हो सकता था?
प्रकृति का दूसरा संकेत था,यमुना के सफाई अभियान प्रोजेक्ट पर आदमजात द्वारा रखे गए सारी कार्ययोजनाओं को एक हल्के झटके से पूरा करना. जिन अखबारों और न्यूज चैनलों ने इसे लीड खबर बनाई थी,वही अब बाढ़ की बाइट दिखाकर-दिखाकर बाढ़ का भय दिखा रहे थे लेकिन किसी भी अखबार या न्यूज चैनल ने प्रकृति के इस सकारात्मक कार्य की ओर संकेत तक करने की जहमत तक नहीं उठाई कि जिस बहती गंगा में लोग हाथ धो रहे थे उसे प्रकृति ने चुट्कियों मे पूरा कर दिया अब तो चिंता यह होनी चाहिए कि इसे अब साफ कैसे रखा जाए.जनता की गाढी कमाई का पैसा कोई लुटेरा लूट ने ले जाए..लोक्तंत्र के रक्षक चौथा स्तंभ चौथे स्तंभ को ……?
दिल्ली का दूसरा मौसम हिंदी पखवाड़े का है. पूरा सितंबर माह चारों तरफ हिंदी के बैनरों से अटा पडा है.कोई ऐसा कार्यालय न होगा जहां लोग प्रोत्साहित न हों. कहते हैं हमारी एक परंपरा में यह श्राद्ध का माह होता है, जिसमें अपने पूर्वजों कों पिंडदान देने की परंपरा है.दोनों का संयोग क्या खूब बन पडा है.
वर्तमान शासन प्रणाली में सर्वाधिक उत्तम शासन प्रणाली लोकतंत्र ही मानी गई है,जिसपर हमें गर्व है. गर्व इस बात का भी है कि हमारा शासन हमारी भौगोलिक सीमाओं में नागरिकों द्वारा बोली जाने वाली भाषा या भाषाओं मे भी किया जाता है. दिल्ली सरकार के राज्य शासन में ही चार भाषाएं हैं.सीमांत प्रांतों को छोड़कर देश का कोई भी नागरिक या समूह देश के अन्यत्र भागों में रहने/बसने की न केवल छूट है बल्कि अपनी भाषा को भी बोलने, यदि अगर राज्य की जनसंख्या के अनुपात में नवांगातुक नागरिकों की संख्या अधिक हो तो वहां के शासन में लाने का संवैधानिक अधिकार भी है. यह दूसरी बात है कि इस मुद्दे पर कोई हल्ला करे तो चुप रहना भी हमारा मजबूत लोकतंत्र है. है न हमारा यह अदभुत लोकतंत्र.
इधर बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने की होड़ सी मची हुई है.किसी ने कहा है सरिता निर्झरों से मिलकर अपना रूप निखारते हुए सागर में मिलती है.यही सरिता की सुंदरता भी है.झरनों को निर्बाध बहने का पूरा हक है और उसके पूरे विकसित होने का भी.इसी तरह बोलियों के भी विकसित होने का भी पूरा अधिकार है.विश्व के श्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक देशों में भारत इसलिए भी अद्भुत और श्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक देश है कि यहां के संविधान में(वर्तमान)बाईस भाषाओं को भारतीय भाषा होने का दर्जा प्राप्त है. ये भाषाएं भारतीयों द्वारा बोली जाती हैं इसलिए कोई माने या न माने मेरी निजी अवधारणा इसे भारतीय भाषाएं मानने की हैं.
वर्तमान संघ की सरकारी कामकाज की भाषा हिंदी और अंग्रेजी है.अंग्रेजी इसलिए कि वह विरासत में मिली जिसका उन्मूलन संघ के सरकारी कामकाज से तभी हो सकेगा जब सभी संघीय सरकार के अमलों को हिंदी में दक्ष कर दिया जाएगा जिसकी प्रक्रिया जारी है.
चूंकि वर्तमान में बाईस भाषाओं वाले इस लोकतंत्रात्मक देश में सभी भाषाएं समान हैं इस जिस बुनियाद पर इसे संघ के सरकारी काम-काज की भाषा हमारे सम्मानीय पूर्वजों ने निर्धारित किया था वह इसकी बोलने वालों की जनसंख्या- वृहत भौगोलिक क्षेत्र और आजादी के आंदोलन में भावनात्मक और राष्ट्रीय एकजुटता का जुडाव. अब अगर बोलियों को हिंदी से निकाल दें तो जनसंख्या का आधार कम हो जाने से संघ की राजभाषा हिंदी का लोकतंत्रात्मक आधार खिसक जाएगा और फिर आप किसी और भाषा का मुद्दा बनाएंगे और इस बहुभाषाविद लोकतंत्रात्मक देश में संघ के सरकारी काम-काज की सुई अपने मूल समय से पीछे बहुत पीछे खिसक जाएगी.

Sunday, September 12, 2010

काठमांडू में त्रिदिवसीय हिंदी संगोष्ठी एवं कवि सम्मेलन सम्पन्न









दिनांक 7,8 व 9 सितंबर 2010 को काठमांडू में त्रिदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन नेपाल,
काठमांडू स्थित भारतीय राजदूतावास एवं भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित किया गया.हालांकि इस संगोष्ठी की संकल्पना उ.प्र.हि.सं. लखनऊ द्वारा की गई थी किंतु अपरिहार्य कारणों से इस संस्थान का कोई प्रतिनिधि सम्मलित न हो सका.
इस संगोष्ठी का शुभारंभ हास्य कवि सम्मेलन से होना था.इस हास्य कवि सम्मेलन में सम्मलित होने वाले कवियों में हास्य कवि सम्राट सर्वश्री सुरेंद्र शर्मा, महेंद्र शर्मा, अरुण जैमिनी, दीपक गुप्ता,कविता किरण,विवेक गौतम और नेपाली कवि सर्वश्री लक्ष्मण गाम्नागे और शैलेंद्र सिंखडा थे.इस हास्य कवि सत्र का उद्घाटन नेपाली राष्ट्रपति महामहिम डॉ. श्री रामवरण यादव द्वारा दीप प्रज्ज्व्लित करके किया गया. इस उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कुलपति प्रग्या प्रतिष्ठान के श्री बैरागी काइंला द्वारा की गई.स्वागत उपकुलपति श्री गंगा प्रसाद उप्रेती द्वारा किया गया. इस अवसर पर आमंत्रित विशिष्ट अतिथियों में नेपाली शिक्षा मंत्री, संस्कृति मंत्री और भारतीय राजदूत श्री राकेश सूद थे जिन्होंने आशीर्वचन और अपने-अपने उद्बोधन भाषण दिए.
नेपाली राष्ट्रपति ने न केवल इस मैत्रीपूर्ण हास्य कवि सम्मेलन के लिए भारतीय राजदूतावास काठमांडू और भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली को बधाई दी बल्कि उन्होंने अपने मंत्रियों के साथ हास्य का लुत्फ भी लिया. महामहिम राष्ट्रपति जी ने इस अवसर पर नेपाली कवियित्री के कविता संग्रह का लोकार्पण भी किया.
यह कवि सम्मेलन कई घंटों तक चला और श्रोताओं से भरा हुआ हाल ठहाकों और तालिओं से गूंजता रहा.काठमांडू की फिजा में हास्य की गूंज इस प्रकार तारी रही कि समय भी ठहर कर इसमें खो सा गया.यह हास्य कवि सम्मेलन दो देशों का आत्मिक मिलन था जिसकी अध्यक्षता हास्य कवि सम्राट सुरेंद्र शर्मा ने की.
संगोष्ठी का प्रथम सत्र हिंदी का वैश्विक परिवेश से शुभारंभ हुआ जिसकी अध्यक्षता वरिष्ट साहित्यकार एवं भाषाविद शमशेर अहमद खान ने की.इस सत्र में डॉ. भवानी सिंह और डॉ. सूर्यनाथ गोप ने अपने-अपने शोधपत्र पढ़े और विश्व में हिंदी की स्थिति का जायजा लिया. विश्व में हिंदी की वर्तमान स्थिति और उसकी समस्याओं पर भारतीय और नेपाली विद्वान श्रोताओं द्वारा उठाए गए सवालों का तार्किक और संतुलित उत्तर सत्र के अध्यक्ष द्वारा दिया गया.
द्वितीय सत्र का विषय था नेपाली र हिंदी साहित्य में सामाजिक चेतना का तुल्नात्मक विवेचन. इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. विनोद कालरा ने की.इस सत्र में डॉ. महादेव अवस्थी,श्री गोपाल अश्क ने शोधपत्र पढ़े और विद्वान प्रतिभागियों द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब सत्र की अध्यक्ष डॉ. कालरा द्वारा दिए गए.
संगोष्ठी का तीसरा सत्र हिंदी र नेपाली भाषा, साहित्य तथा लिपि की समानता. इस सत्र की अध्यक्षता दॉ. डी.पी.भंडारी ने की तथा डॉ. विनोद गौतम, डॉ. योगेंद्र यादव व डॉ. चूणामड़ि बंधु ने अपने- अपने आलेख प्रस्तुत किए.भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के निदेशक श्री अजय गुप्ता ने अपने उद्बोधन भाषण में कार्यक्रम की सफलता पर नेपाल के इस प्रतिष्ठान के कुलपति, सभी पदाधिकारियों, काठमांडु स्थित भारतीय राजदूतावास के महामहिम राजदूत,प्रथम सचिव सुश्री अपूर्वा श्रीवास्तव और सभी कर्मियों तथा बी.पी. कोईराला इंडिया-नेपाल फाउंडेशन को हार्दिक धन्यवाद अर्पित किया.

Saturday, August 28, 2010

गंगा से ग्लोमा तक का विमोचन




विगत दिनों नार्वे की राजधानी ओसलो में हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं बालपत्रिका चंदामामा के पूर्व संपादक बालशौरि रेड्डी के सान्निध्य में प्रवासी भारतीय कवि सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक के सातवें कविता संग्रह का लोकार्पण समारोह प्रतिष्ठित लोगों द्वारा किया गया. इस अवसर पर भारतीय दूतावास के प्रथम सचिव श्री दिनेश कुमार नंदा,सांसद हाइकी होलमोस,महामहिम आन ओल्लेस्ताद, इंडो-नार्वेजियन सूचना एवं संस्कृति फोरम के उपाध्यक्ष हराल्ड बूरवाल्द, संगीता शुक्ल सीमानसेन, प्रो. हरमीत सिंह बेदी,गुरुनाम कौर बेदी एवं विनोद बब्बर आदि ने गरमजोशी के साथ शिरकत की.

Sunday, August 22, 2010

सामाजिक संदर्भों को उकेरते दो नाटक




सामाजिक संदर्भों को उकेरते दो नाटक
शमशेर अहमद खान
शिल्पायन प्रकाशन द्वारा हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार परवेज़ अहमद के दो नाटकों का संग्रह ये धुआं कहां से उठता है और छोटी ड्योढ़ीवालियां वर्तमान सामाजिक संदर्भों को इस प्रकार रेखांकित करते हैं कि पाठक इन नाटकों के सारे घटनाक्रम अपने आस-पास घूमता महसूस करता है .भाई परवेज़ वर्षों तक नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग से जुड़े रहे इसलिए उनके इन नाटकों में भाषा में कहीं शिथिलता या लिजलिजापन नहीं बल्कि भाषा ठोस और सटीक पात्रों के माध्यम से व्यक्त की गई है,यह उनका संपादकीय कौशल है जो नाटक के कथ्य को तार्किक और भाषा की दृष्टि से सटीक बना देता है जिसे केवल साहित्यिक रचनाकार द्वारा कर संभव नहीं हो पाता क्योंकि साहित्यिक रचनाकार मात्र भावनाओं के साथ ऐसा तादात्म्य स्थापित करता है जिसके दायरे से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं हो पाता.
दोनों नाटकों के कथ्य का सार पुस्तक के रैपर पर दिया हुआ है.ये धुआं कहां से उठता है,इस संबंध में लेखक कहता है….ऐसे इंसान के दर्द की दास्तान है जो आज भी मुल्क के बंटवारे के थपेड़ों में झूल रहे हैं……अपने बुजुर्गों की रूहों के दरम्यानवो आज भी अपनी मिट्टी से चिपके हुए हैं और उसके सौंधेपन में डूबे हुए हैं….जब जज्बात पुकारते हैं तो उनके कदम सरहद पार रह रहे अपने रिश्तेदारों की तरफ खिंचने लगते हैं लेकिने दिल में ख्वाहिश यही होती है,वहां मौत होने पर भी दफनाया अपने मुल्क में ही जाए और यही पेचीदा हालात उनके दिमाग में सवाल पैदा करते हैं- बंटवारा हुआ तो बंटा कौन?...ख्वाब बंटे, ज़िंदगियां बंटी, जज्बात बंटे. इन्हीं मुद्दों को आधार बनाकर यह नाटक बुना गया है जो आज भी कहीं न कहीं इस प्रायद्वीप के कुछ लोगों के लिए टीस बना हुआ है जोइस विभाजन के शिकार हुए हैं.
छोटी ड्योढ़ीवालियां इस पुस्तक का दूसरा नाटक है जिसमें पेचीदा इंसानी संबंधों और उनके पारस्परिक जज्बातों को इसके माध्यम से व्यक्त किया गया है. नाटक की भाषा और कथ्य दोनों में इस प्रकार संतुलन बना हुआ है कि इनके किरदार बिना संवाद के ही बोलने से लगते हैं. मुस्लिम समाज के पात्रों का चयन नाटककार ने किया है, वे अपने सामाजिक सरोकारों से इतने जुड़े हुए हैं कि रिश्तों को निभाने के लिए वे उदात्ता के चरम तक पहुंच जाते हैं.बड़ी नानी नाम की पात्र इसकी जीती-जागती मिसाल हैं और वे सभी पात्र भी जो इस खानदान से ताल्लुक रखते हैं अपने-अपने चरित्रों को बखूबी अंजाम देते हुए समाज के आदर्श स्थिति को रूपायित करते हैं. भाषा शुद्ध सोने जैसी खरी है जो मुस्लिम परिवेश को स्वतः परिलक्षित कर देती है.
लेखक ने इसकी कथावस्तु का चयन मध्य प्रदेश की मालवा भूमि के मुस्लिम तबके का किया है जो कभी अपने सांस्कृतिक उरूज पर हुआ करता था किंतु राजनीतिक दृष्टि से जैसे-जैसे यह क्षेत्र छोटा होता गया वैसे- वैसे यहां सामाजिक बदलाव भी होते गए, और इन्हीं बदलाओं के दौरान समाजिक टूतन का निरूपण नाटक में किया गया है किंतु कर्तव्य और नैतिकता मानवीयता के चरम बिंदुओं का संस्पर्श कराती है.यही इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता है.
शमशेर अहमद खान,
2-सी,प्रैस ब्लॉक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054.
Email: ahmedkhan.shamsher@gmail.com/09818112411

Tuesday, August 17, 2010

महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को बाल साहित्य की प्रथम प्रति समर्पित



63वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल को एट होम समारोह में वरिष्ठ बाल साहित्यकार श्री शमशेर अहमद खान द्वारा रचित और मीरा पब्लिकेशंस,49-बी/37,न्याय मार्ग, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित संतोष का फल मीठा तथा चांद पर पलाट ले लो की प्रतियां भेंट की गईं. इस अवसर पर पद्मश्री डॉ. श्याम सिंह शशि के अलावा सांसद, वरिष्ठ अधिकारी, गणमान्य अतिथि उपस्थित थे.

Sunday, August 15, 2010

दिल्ली की एक शाम,कहानीकार क्षितिज शर्मा के नाम




दिल्ली की एक शाम,कहानीकार क्षितिज शर्मा के नाम
-शमशेर अहमद खान
नई दिल्ली।

13 अगस्त 2010 को पीपुल्स विजन, दिल्ली, हिन्द-युग्म और गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 'एक शाम एक कथाकार' कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में वरिष्ठ कथाकार क्षितिज शर्मा ने कहानीपाठ किया। अध्यक्षता हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने की। क्षितिज शर्मा के कृतित्व पर समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट और कथाकार महेश दर्पण ने अपने विचार रखे। संयोजन हिन्द-युग्म के संपादक शैलेश भारतवासी तथा युवा कवि व लेखक रामजी यादव ने किया। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश ने किया।

पीपुल्स विजन निकट भविष्य में हर महीने एक ऐसी गोष्ठी के आयोजन को लेकर कटिबद्ध है जिसमें एक कथाकार अपनी कहानियों का पाठ करे और कहानी के जानकार और आम पाठक उपसर अपनी ईमानदार टिप्पणियाँ करें। कथाकार की प्रशस्ति करना ही मात्र इस गोष्ठी का उद्देश्य नहीं हो, बल्कि कहानीकार को तल्ख और वास्तविक प्रतिक्रियाएँ तत्काल मिलें। इस आयोजन में पीपुल्स विजन को हिन्द-युग्म डॉट कॉम और गांधी शांति प्रतिष्ठान का सहयोग प्राप्त है।

इसी शृंखला की पहली कड़ी के तौर पर वरिष्ठ कथाकार क्षितिज शर्मा ने अपनी कहानी 'अनुत्तरित' का पाठ किया। क्षितिज ने इस कहानी का बहुत ही धीमा और नीरस पाठ किया। यह बात वहाँ उपस्थित श्रोताओं और विशेषज्ञों ने भी रेखांकित की। लेकिन गोष्ठी की सफलता इस बात में भी थी कि कोई भी श्रोता कथापाठ के दौरान टस से मस नहीं हुआ। संचालक आनंद प्रकाश ने क्षितिज शर्मा के कथापाठ से पहले ही वहाँ मौज़ूद सभी रचनाकारों से यह सवाल पूछा कि आज के रचनाक्षेत्र में सभी अच्छी बातें, ग्राह्य बातें या पक्ष की बातें किसी सेट फॉर्मुले के तौर पर आती हैं, समकालीन रचनाओं में शत्रु पक्ष की विशेषताओं और क्रूरताओं की ओर स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। तो क्या शत्रु पक्ष के आवश्यक मूल्यांकन के बिना इन रचनाओं की सार्थकता एक निश्चित बिंदु के आगे सम्भव है? क्षितिज शर्मा ने इस सवाल का उत्तर देते हुए कहा कि वो अपनी रचनाओं में दोनों पक्षों का एक बराबर उल्लेख इसलिए भी नहीं करते कि कहीं पाठक दोनों में उलझ ने जाये, उसे दो रास्ते न मिल जायें और वह उनमें कहीं भटक न जाये। इसलिए वे शत्रु पक्ष का वर्णन इशारों में करते हैं।

महेश दर्पण ने अपने वक्तव्य में कहा कि मैं यह तो नहीं कहूँगा कि 'अनुत्तरित' क्षितिज शर्मा की प्रतिनिधि कहानी है, लेकिन इनकी लगभग सभी कहानियों में अपने समय के बड़े प्रश्न मौज़ूद हैं। इस समाज में, इस व्यवस्था में या इस समाज में जीने को विवश व्यक्ति के पास इन सवालों के जवाब मौज़ूद हैं या नहीं यह एक अलग बात है। महेश ने श्रोताओं को बताया कि आलोचकों और पाठकों का क्षितिज शर्मा की ओर ध्यान तब गया जब इनके उपन्यास 'उकाव' को एक ऐसे प्रकाशन ने पुरस्कृत किया, जिसने उसे छापा नहीं था। महेश ने कहा कि यदि किसी को क्षितिज के कहानियो के केन्द्र-बिन्दु की तलाश करनी हो तो पहले उसे पर्वतीय स्त्रियों के संघर्षों को बहुत करीब से देखना होगा।

महेश दर्पण ने क्षितिज शर्मा को शैलेश मटियानी और शेखर जोशी की परम्परा का कथाकार कहा और कहा कि इन कथाकारों को मालूम है कि पहाड़ी स्त्रियों के दुःख-दर्द क्या हैं, कैसे वो अपने पीठ पर वो पहाड़ लादे हैं, जिन्हें पहाडी जीवन कहते हैं। क्षितिज शर्मा अपनी कहानियों में बहुत कम बोलते हैं, वे अपने आपको बहुत पीछे रखते हैं। यदि आप शैलेश मटियानी की केवल 'अर्धांगिनी' को याद रखें, तो क्षितिज की कहानियों के स्त्री-पात्रों की तुलना आप कर सकते हैं। क्षितिज शर्मा बहुत धीमी गति से चलने वाले कथाकार हैं। अपनी कहानियों को पढ़ते वक्त वे उन्हें दुश्मन की कहानी जैसा भी स्नेह नहीं देते। बिलकुल भी इन्वाल्व नहीं होते। अपनी कहानियों का इतना नीरस पाठ क्षितिज शर्मा ही कर सकते हैं।

महेश ने आगे कहा- "क्षितिज शर्मा की कहानियों को अमरकांत की कहानियों की तरह एकबार पढ़कर नहीं समझा जा सकता। मैं समझता हूँ कि क्षितिज 'ताला बंद है' से आगे बढ़े हैं। इधर की कुछ कहानियों में क्षितिज ने नये कथ्यों की खोज की है, जिसमें आज के समाज और व्यक्ति की चिंताएँ हैं और उनके समाधान का संकेत है।"

पंकज बिष्ट ने कहा कि मुझे क्षितिज शर्मा की पहली कहानी 'रोटी' को प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त है। क्षितिज शर्मा पहाड़ी जीवन और उसकी संवेदना जिस इंटीमेसी, जिस समझ के साथ देखते हैं, मेरा ख्याल है कि आज के समय के और किसी दूसरे पहाड़ी कहानीकार में वह नही मिलती। इसमें कोई शक नहीं है कि जब क्षितिज पहाड़ पर लिखते हैं तो वे शैलेश मटियानी के करीब होते हैं। लेकिन शैलेश मटियानी और क्षितिज शर्मा में यह फर्क है कि शैलेश मानवीय-संवेदना की कहानियाँ लिखते हैं, लेकिन क्षितिज शर्मा पहाड़ी जीवन के टूटते-बिखरते जाने की व्यथा लिखते हैं, पहाड़ी जीवन में पैदा होने वाली विकृतियों और उसके दुष्परिणाम की कहानियाँ लिखते हैं। क्षितिज शर्मा की कहानी में शैलेश मटियानी की शैली का प्रभाव देखना हो तो क्षितिज शर्मा की 'जागर' कहानी पढ़ी जा सकती है।

पंकज बिष्ट ने क्षितिज शर्मा की कहानी 'ताला बंद है' को हिन्दी की उल्लेखनीय कहानी कहा। पंकज ने आगे कहा कि ऐसा नहीं है कि क्षितिज शर्मा ने केवल पहाड़ी जीवन की कहानियाँ लिखी हैं, इनकी यहाँ की भी कहानियाँ भी उल्लेखनीय हैं। क्षितिज शर्मा की कहानियाँ निम्न मध्यवर्ग का बहुत गहराई से वर्णन करती हैं।

वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि मुझे हमेशा इस जगह से शिकायत है क्योंकि यहाँ कभी बात सुनाई देती हैं और कभी सुनाई ही नहीं देतीं। मैं क्षितिज शर्मा की कहानी सुन नहीं पाया, इसलिए मैं भी उस कहानी पर कुछ कहने का अधिकारी नहीं हूँ। क्षितिज शर्मा एक लो-लाइन व्यक्ति हैं। न वे अधिकारी हैं, न कोई संपादक और न कोई हाई प्रोफाइल व्यक्ति। मतलब कि हम उनकी कहानियों को बिना किसी दबाव के पढ़ सकते हैं। मैंने क्षितिज की 4-5 कहानियों को पढ़ा हैं, लेकिन 'उकाव' उपन्यास को पढ़ने से पहले मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि क्षितिज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को इतने निकट से जानते हैं। आजादी के बाद की हिन्दी कहानियाँ वैक्यिक्तिक थीं। उनके केन्द्र में व्यक्ति था। वह समाज को स्वीकारता था। वह स्त्री-पुरुष के संबंधों की कहानियाँ थीं। आज की कहानियों के केन्द्र में भी व्यक्ति है, लेकिन वह व्यक्ति के आस-पास, उसकी समस्त यात्रा की कहानियाँ हैं, जिनमें समाज में रहते हुए भी समाज का अस्वीकार है। मैं समझता हूँ कि क्षितिज की कहानियाँ भी इसी अस्वीकार की कहानियाँ हैं, जिनमें व्यवस्था की बात करते हुए व्यवस्था का अस्वीकार है।

राजेन्द्र ने आगे कहा कि क्षितिज शर्मा एक ठंडे कहानीकार हैं, जिनके पात्रों को पढ़कर, जानकर हम किसी तरह की उत्तेजना, उद्विग्नता, उदग्रता का अनुभव नहीं करते। वे सामान्य तरह की कहानियाँ है। मुझे लगता है कि इस तरह की सामान्यता को भी समझने के लिए हमें व्यक्ति में जाना होता है, भीड़ को समझने के लिए भी कुछ व्यक्तियों की ही तस्वीरें बनानी पड़ती हैं। इस व्यक्ति को सामाजिक संदर्भों में समझे बिना कहानी अपने आप को नहीं पढ़वा सकती। कई बार ये कहानियाँ लगभग समाजशास्त्रीय अध्ययन लगती हैं। और मुझे इस तरह की कहानियों से थोड़ी सी शिकायत है। मैं समझता हूँ कि क्षितिज शर्मा की कहानियाँ इस बात के लिए आश्वस्त करती हैं कि कहानी एक समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं है, किसी व्यक्ति का निजी और एकांतिक अनुभव नहीं हैं।

इस संगोष्ठी में दिल्ली के कई नामचीन लेखक-पत्रकार-समीक्षक और सुधी पाठक भी मौजूद थे.
क्षितिज शर्मा का कहानी पाठ कार्यक्रम यद्दपि एक सर्जनात्मक कार्य था किंतु उनका किया गया स्वयं पाठ न तो मंचासीन वक्ताओं को और न ही श्रोताओं के पल्ले पडा.जब वक्ताओं ने उनकी कहानी की प्रोफाइल पर अपनी-अपनी टिप्पणियां दीं, तब श्रोता ठगे से महसूस करने लगे क्योंकि कहानी पाठ के समय किसी भी श्रोता के पल्ले कहानी नहीं पड़ी थी. यद्दपि कई बार श्रोताओं द्वारा कसमसाहट भी महसूस की गई किंतु उनकी सुधि लेने वाला कोई भी नहीं था. क्षितिज शर्मा के कहानी पाठ की शैली पर तो एक वक्ता ने कह भी दिया कि लगता है शर्मा जी ने दुश्मन की कहानी पढ़ी है. आशय यह है कि आगे के कार्यक्रमों में रोचकता और प्रवाह बनाए रखने के लिए जरूरी है कि बुलंद आवाज में कहानी पाठ कराया जए और यह बंदिश भी खत्म हो कि केवल कहानीकार ही अपनी कहानी का पाठ करे.
संयुक्त तत्वाधान में किया गया यह कार्यक्रम तप्ते रेगिस्तान में बादल के साए के मानिंद था. जो कभी गालिब-मीर की सर-सब्ज दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों से गलियां गूंजी करती थीं आज वीरान दिल्ली की यह शाम सर-सब्ज कराने की दिशा में इनका पहला कदम था. अंत में रामजी यादव ने आभार व्यक्त किया।

शमशेर अहमद खान
2-सी,प्रैस ब्लॉक,पुराना सचिवालय,सिविल लाइंस,दिल्ली-110054

Sunday, August 1, 2010

नाव गाड़ी पर या गाड़ी नाव पर








भारतीय रेल विश्व की गिनी-चुनी रेलों में एक है जो सर्वाधिक यात्रियों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने का न केवल काम करती है बल्कि इसके अलावा भी वह राष्ट्र की खुशहाली के लिए हर तरह की सेवाएं भी देती है. विगत दिनों खेतों में दौड़ने वाले ट्रैक्टर की एक खेप को अपनी मंजिल तक ले जाते हुए कैमरे के लेंस ने पकडा जो आपके समक्ष प्रस्तुत है…….

Thursday, July 8, 2010

पेट्रोल,महंगाई और आम आदमी

पेट्रोल,महंगाई और आम आदमी
शमशेर अहमद खान
महंगाई के विरोध में भारत बंद का आह्वान राजनीतिक पार्टियों द्वारा करके सरकार या जनता के कामों में बाधा डालकर उनको क्षति पहुंचाना लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में भले ही उनका संवैधानिक अधिकार हो,किंतु महंगाई झेल रही जनता से सहानुभूति लेकर अपनी राजनीति चमकाने की निहित स्वार्थ भावना आम जनता के मनःस्थल में यह सवाल जरूर खडा करती है कि महंगाई से आम जनता को निजात दिलाने के लिए इसके अलावा भी क्या कुछ रास्ते नहीं थे?
सदियों से हमारी यह परंपरा रही है कि निःस्वार्थ होकर हम सहयोगात्मक वृति से सामाजिक कल्याणकारी कार्य करते रहे हैं.जिसे हमारे पूर्वजों ने इसे अपनी दिनचर्या में इस तरह आत्मसात कर लिया जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति का एक उपांग ही बन गया. उस सामाजिक कल्याण की भावना से सिद्ध काम में ऐसा कोई निहित स्वार्थ उनका नहीं होता था जैसाकि आजकल है? कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं जिनसे अपने पूर्वजों के रास्ते से भटकते हुए हम स्वंय में पर निगाह दौडाने से जवाब मिलता दिखाई देगा.
बात पिछले दिनों की है.बजट सत्र के दौरान एक चैनल ने महंगाई के मुद्दे पर एक कार्यक्रम में मुझे भी दर्शक दीर्घा में आम दर्शक बनकर बहस को सुनने और अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया था.इस चर्चा में सत्ता पक्ष के अलावा तीन अन्य राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के कद्दावर नेता भी बुलाए गए थे ताकि बहस को पक्ष और विपक्ष दोनों की दृष्टियों से कसा जा सके. आरोप-प्रत्यारोप के बीच गरम-गरमा बहस में जहां खाद्य पदार्थों की जिंसों में चीनी-दाल और सब्जी मुख्य रहीं,वहीं मुझे लगा कि मांसहार के आइटमों को जानबूझकर या सहज रूप में छोडा जा रहा है. संयोग कहें या कुछ और विगत दिनों मैंने अपने आबाई वतन में भारत से नेपाल की दिशा में बड़े-बड़े ट्रकों में जीवित पशुओं को जाते हुए देखा था. सहजता से पता करने पर मालूम हुआ कि ये जीवित पशु पड़ोसी देशों को भेजे जा रहे हैं. दिल्ली लौटने पर जब संबंधित विभाग से पता किया तब मालूम हुआ कि अभी तक देश में जीवित पशुओं के निर्यात के लिए न कोई नीति है और न ही नियम.चूंकि देश की आबादी का एक बडा भाग इसे कंज्यूम करता है, लिहाजा इनकी तस्करी भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से महंगाई का एक घटक है. कार्यक्रम में सम्मिलित उन सम्मानित नेताओं से इस संबंध में जब सवाल किया तब जवाब तो मिला नहीं.हां,चैनल ने भी वर्तमान पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए उस अंश को इडिट जरूर कर दिया. बात आई-गई हो गई.बजट के दौरान उठी महंगाई विस्मृत हो गई.
इधर पेट्रोल के दामों में की गई वृद्धि और इससे होने वाली महंगाई को लेकर उठा विवाद और जन शुभचिंतकों द्वारा किया गया भारत बंद,यह उनका अहम मुद्दा था. शासक और शासित के अपने-अपने तर्क और गणित होते हैं. हमारा मुद्दा यह नहीं है कि दाम बढ़े तो क्यों बढ़े? और न बढ़े तो क्यों न बढ़े? यह विशुद्ध रूप से तकनीकि मामला है. यहां बात मांग और आपूर्ति के परस्पर सिद्धांत की है.कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अगर केंद्र और राज्य दोनों मिलकर इसके कुछ कर हटा लें तो निश्चित रूप से पेट्रोल के दाम कम हो जाएंगे और बढ़्ती हुई महंगाई पर अंकुश लग सकता है. गौर करने की बात यह हैकि कुछ राज्यों में उन राजनीतिक पार्टियों की सरकारें भी हैं,जो परस्पर बात कर महंगाई को रोकने की दिशा में सकारात्मक पहल भी कर सकती थीं. खैर,
एक दूसरा पहलू,पिछले दिनों एक दैनिक ने आंकड़ों से यह प्रमाणित कर दिया था कि आगामी कुछ वर्षों में दिल्ली में चार पहिया वाहनों की रफ्तार मात्र दस से बीस किलोमीटर तक सीमित हो जाएगी. यह देखा भी गया है कि दिल्ली में नब्बे प्रतिशत प्राइवेट कारों में एकल सवारियां होती हैं और आज सरकार ने भी सरकारी कर्मचारी की हैसियत इतनी कर दी है कि वह किसी भी रूप में कार ले सकता है.कार लेना हर व्यक्ति का यह न केवल संवैधानिक बल्कि प्राकृतिक अधिकार है भी कि वह कार या कारें रखे.लेकिन ज्वलंत सवाल यह है कि क्या ईंधन के बेजा इस्तेमाल या क्षतिपूर्ति रहित धरती के खनिजों के दोहन का हमारा अधिकार है? कुछ वर्ष पहले टाफलर के इस सिद्धांत पर आधारित उनकी पुस्तक फ्यूचर शाक को अपने शासन काल में इंदिरा जी ने उपसचिव स्तर तक के अधिकारियों को पढ़ने के लिए अनिवार्य कर दिया था. यहां उनकी राजनीति की सच्ची सुगंध और नेकनीयती दिखाई देती है.दर असल हम अपनी वैशिष्टता को त्याज्य कर उपभोगतोन्मुख संस्कृति की ओर ऐसे लालायित हो गए हैं कि लोकोन्मुख संस्कृति की तरफ जाना सरल नहीं रह गया है.फैक्टर जो भी हों.रास्ता हमें ही तलाशना है.अगर मैं स्वंय से शुरु करूं तो मैं अपने आवास से केवल 1.70 रुपए में ही कार्यालय पहुंच सकता हूं,वर्तमान में सार्वजनिक वाहन से कम से कम पंद्रह रुपए लगते हैं.एक रुपए सत्तर पैसे में मैं न केवल अपनी कुछ मुद्राएं बचाकर अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर लगा सकता हूं बल्कि इस कार्य से प्रदूषण रहित वातावरण की दिशा में कदम भी रख रहा हूंगा. ऐसी नेकनीयती अगर कार्यालयों के निकट कालोनियों के कर्मचारी कुछ दिन/दिनों/महीने/महीनों के लिए करें तो संभवतः राष्ट्र हित में क्या से क्या न कर चुके होंगे.बात हमेशा ऊपर से नीचे जाती है,इसकी मिसाल लोगों के दिल की धड़कन दिल्ली से क्यों नहीं?राजनीति केवल क्या विरोध से ही होती है या क्या नई संकल्पनाएं नहीं हो सकतीं? यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक घटक का हर दल भी सत्तासीन होता है.
---शमशेर अहमद खान
2-सी,प्रैस ब्लॉक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054

Thursday, June 24, 2010

चलता चला जाऊगा का लोकार्पण




श्री विष्णु प्रभाकर जी के 99वें जन्म दिन के अवसर पर दिल्ली स्थिति हिंदी भवन में श्री विष्णु प्रभाकर जी द्वारा रचित कविता संग्रह चलता चला जाऊगा का लोकार्पण हिंदी मनीषियों के सान्निध्य में सर्वश्री अजित कुमार, डॉ. बलदेव बंशी, डॉ. कृष्ण दत्त पालीवाल,डॉ. हरदयाल,महेश दर्पण,हास्य कवि सुरेश शर्मा, शमशेर अहमद खान,लक्ष्मी शंकर वाजपेयी,डॉ. सुरेश शर्मा के कर कमलों द्वारा सम्पन्न किया गया. इन कविताओं के संकलन के दायित्व का निर्वहन श्री विष्णु जी के सुपुत्र अतुल कुमार जी और प्रकाशन, प्रभात प्रकाशन ने किया है.इस संकलन की भूमिका में हिंदी कविताओं के महान समालोचक श्री अजित कुमार ने लिखा हैश्री विष्णु प्रभाकर से परिचित साहित्य प्रेमी सहसा विश्वास न कर सकेंगे कि कथा-उपन्यास,यात्रासंस्मरण,जीवनी,आत्मकथा,रूपक,फीचर,नाटक,एकांकी,समीक्षा, पत्राचार आदि गद्य विधाओं के लिए ख्यात विष्णु जी ने कभी कविताएं भी लिखी होंगी.लेकिन यह एक सच है.पुस्तक के रैपर पर अतुल जी लिखते हैं कि प्रस्तुत काव्य संकलन में सन 1968 से 1990 की अवधि में उनकी आंतरिक संवेदनाओं को कविता के रूप में संप्रेषित करती उन अभिव्यक्तियों को संकलित करने का प्रयास किया है,जो वे वर्ष में एक या दो बार समाज व मानव की स्थितियों-परिस्थितियों पर कविता के रूप में दीपावली व नववर्ष के संदेश के रूप में अपने चाहने वालों को भेजते रहते थे….मेरे विचार में उनकी कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति तो है ही, लेकिन उनकी आंतरिक पीडा,आंतरिक इच्छा कि, मनुष्य के अंदर का मनुष्य सच्चे रूप में मानव बन सके और अपने इस जीवन को सार्थक कर सके, की अभिव्यक्ति सबसे ज्यादा मुखर है---पाल ले भले ही दंभ वह, जीतने का प्र्थ्वी को, आकाश को दिग/ दिगंत को,पर/ वह मनुष्य है, मनुष्य ही रहेगा. यही उसकी जीत है, यही उसकी हार है और इसी हार की जीत का नाम है मनुष्य.
कविताओं के बारे में टिप्पणी करते हुए वक्त्तओं ने उन्हें एंटी रोमांटिक मूड में लिखी गई मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन मूल्यों व सामाजिक सरोकारों को दर्शाती संवेदनशील रचनाएं बताईं. एक वक्ता ने 1979 में लिखी गई उनकी एक कविता व्यास और मैं का जिक्र करते हुए यह कहाकि विष्णु जी की कविताएं शाश्वत हैं. आज मनुष्य ने अपने मिथ्या अहम के कारण प्रकृति से जो होड़- लेने की जो व्यर्थ कामना पाल रखी है,इससे मनुष्य का कद बौना ही होता जा रहा है.युगों पहले मनुष्य जब प्रकृति के संरक्षण में था तब उसकी शक्ति असीम थी. आज मनुष्य प्रकृति विजय का दंभ तो भरता है किंतु जलवायु परिवर्तन आदि अनेक ऐसी आपदाएं हैं जिसके आगे वह बौना लगता है, जिसका संकेत विष्णु जी ने अपनी इस कविता में यों व्यक्त किया है--युगों पहले
व्यास ने कहा था—
मनुष्य से बडा कोई नहीं है.
आज
मैं कहता हूं
मनुष्य से छोटा कोई नहीं है.
क्योंकि
मैं मनुष्य हूं
व्यास ऋषि थे.
इस कार्यक्रम का सफल संचालन युवा कवि हर्षवर्धन द्वारा किया गया.

Monday, June 7, 2010

आरोग्यम का लोकार्पण










भारतीय जनमानस को समर्पित आरोग्यम
शमशेर अहमद खान

विगत दिनों भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सभागार में स्वामी करम वीर जी महाराज द्वारा लिखित आरोग्यम पुस्तक का लोकार्पण डॉ. कर्ण सिंह जी के कर कमलों द्वारा दिल्ली के अति विशिष्ट गणमान्य उपस्थित जनों के बीच संपन्न हुआ.इस समारोह में न केवल चिकित्सा जगत के विश्व स्तर के एलोपैथिक के डॉ. बल्कि सभी चिकित्सा पद्धतियों के ख्याति प्राप्ति सम्मानित चिकित्सक के अलावा प्रशासक, मीडियाकर्मी,लेखक, अधिवक्ता आदि भी इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी रहे.
लोकार्पण समारोह से पूर्व भारतीय संस्कृति की परम्प्रा के अनुसार दीप प्रज्ज्वलित किया गया. तत्पश्चात मन्चासीन अतिथियों ने आरोग्यम पुस्तक पर अपनी-अपनी संक्षिप्त टिप्पणियां दीं.
डॉ. कर्ण सिंह जी ने अपने उद्बोधन में भारतीय चिकित्सा पद्धति की हजारों वर्षों से चली आ रही कल्याणकारी विशेषताओं को आगे भी जनकल्याण हेतु उपयोग पर बल देते हुए स्वामी कर्म वीर जी के इस अवधारणा की सराहनी की कि मनुष्य को बीमारी की दशा में चिकित्सा से पूर्व ही क्यों न ऐसा बना दिया जाय कि वह स्वस्थ रहे जिसे स्वामी जी की पुस्तक में बताया गया है.
स्वामी जी की पुस्तक दो भागों में बंटी है-प्रथम भाग में आठ अध्याय हैं जिनमें प्रमुख अध्याय हैं-आयुर्वेद के मुख्य स्तंभ क्या हैं? भारतीय रसोई-स्वास्थ्य का मुख्य बिंदु,संतुलित आहार क्या है? स्वस्थ जीवन के मूलभूत क्या हैं? कोई बीमारी से कैसे बचाव कर सकता है? और विरोधाभासी भोजन क्या हैं और उनके उदाहरण. और दूसरे भाग में-अनाज और दालें, सब्जियां,दूध और उसका उत्पाद्य,दही और उसका उत्पाद्य,गाय का उत्पाद्य तथा फलों पर चर्चा की गई है.
-2-
अपने वक्तव्य में पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उनकी यह पुस्तक भारतीय पद्धति के अनुसार रसोई से स्वस्थ रहने के सिद्धांत पर बल देती है.
वास्तव में आज जिस प्रकार भारतीय जनमानस के आचार-विचार में परिवर्तन के साथ उसकी भोजन प्रणाली और रहन-स्हन में बदलाव आ रहा है, विशेषकर आने वाली पीढ़ी जो बिना नफा-नुक्सान के वाह्य सभ्यता से प्रभावित होकर भारतीय संस्कारों,जीवन पद्धतियों को त्याग कर नित नए रोग से ग्रसित हो रही है, उसके लिए आवश्यका था कि इस तरह की पुस्तक आए और जो लोगों के बीच मसीहा के रूप में स्वस्थ जीवन के लिए बाइबल का काम करे. देवभूमि हिमालय में अनेक महर्षियों के सत्संग से मिले अमृत की बूंदों को उन्होंने भारत भूमि के बीमार और निराश जनमानस में अपनी दैवी संकल्पनाओं के साथ आरोग्य नामक पुस्तक के माध्यम से अवतरित हुए हैं जो स्वस्थ भारत के निर्माण में संजीवनी का काम करेगी.
पुस्तक के लोकार्पण में पद्म भूषण वैद्य देवेंद्र त्रिगुणा और पद्म भूषण डॉ.एस.पी. अग्रवाल की न केवल सहभागिता थी बल्कि उन्होंने स्वामी जी के उल्लेखनीय इस योगदान की भूरि- भूरि प्रशंसा भी की.
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के निदेशक(प्रकाशन) डॉ. अजय गुप्ता का इस कर्यक्रम के समन्वयन में सराहनीय योगदान रहा.
शमशेर अहमद खान,
2-सी,प्रैस ब्लाक,पुराना,सिविल लाइन, दिल्ली—110054.
दूरभाष-011-23811363/9891502997,9818112411

Saturday, May 22, 2010

कालजयी रचनाकार हैं --अमीर खुसरो




विगत दिनों वरिष्ठ साहित्यकार शमशेर अहमद खान द्वारा लिखित भारत भारती के सच्चे सपूत-अमीर खुसरो शीर्षक पुस्तक का लोकार्पण राज्य सभा के माननीय उप सभापति श्री के. रहमान खान के कर- कमलों द्वारा उनके आवास पर संपन्न हुआ.इस अवसर पर देश के प्रतिष्ठित बुद्धजीवी, विधायक, प्रशासक,साहित्यकार,कवि आदि उपस्थित थे.माननीय उपसभापति जी ने लोकार्पण के उपरांत अमीर खुसरो के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हुए बताया कि इस बात में कोई संदेह नहीं कि खुसरो साहब हिंदी और उर्दू जबानों के न सिर्फ आदि कवि रहे हैं बल्कि साहित्य और संगीत के कई एक विधाओं के जन्मदाता भी रहे हैं. कई एक वाद्ययंत्रों और छंदों का उन्होंने अविष्कार भी किया. भारतीयता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी. आज एक अजीब सी स्थिति यह हो गई है कि आज की युवा पीढ़ी खुसरो साहब को नहीं जानती,हमारा फर्ज बनता है कि हम उनके योगदान को न भूलें और युवाओं को उनके बारे में बताएं.मैं शमशेर साहब को मुबारकबाद दूंगा कि उन्होंने मेहनत से उनके सारे टेक्स्ट को एक जगह एकत्रित कर पुस्तक का आकार दिया है .वे इसी तरह और लिखें और ऐसी ही पुस्तकें प्रकाश में आएं.
उन्होंने आगे कहाकि खुसरो उस युग में पैदा हुए थे जब सुल्तानों का शासन हुआ करता था. उस जमाने में उन्होंने हिंदवी की बुनियाद डाली और यहीं से हिंदी और उर्दू दो जबानों का उद्गम हुआ. आज हमें न सिर्फ इन जबानों पर नाज है बल्कि भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया की ताकतवर देश भी अपनी मार्केटिंग मे लिए इन जबानों का सहारा ले रहे हैं. अमीर खुसरो साहब की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम ही होगी. उनका सारा अदब बच्चों से लेकर बड़ों तक न सिर्फ नई सोच देता है बल्कि आपसी मेल-मिलाप,भाईचारा, हुब्बुलवतनी,प्रकृति प्रेम और विश्व बंधुत्व की ओर इशारा करता है. उनकी सारी रचनाएं कालजयी हैं जो हर युग में लागू होती हैं.
इस संगोष्ठी का कुशल संचालन वरिष्ठ पत्रकार श्री एस.एस. शर्मा ने किया.उन्होंने संगोष्ठी में पधारे सीलमपुर क्षेत्र के विधायक श्री मतीन अहमद चौधरी, डॉ. अजय कुमार गुप्ता, जनाब किदवई साहब,प्रकाशक अनिल कुमार शर्मा,पुस्तक के कवर डिजाइनर श्री नरेंद्र त्यागी का विशेष आभार व्यक्त किया.